


भारत विविधताओं का अद्भुत संगम है—यहां हर कुछ किलोमीटर पर बोली, संस्कृति और रहन-सहन बदल जाता है। इस विविधता के बीच "भाषा" केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि पहचान, स्वाभिमान और संवैधानिक अधिकारों का प्रतीक बन चुकी है। लेकिन जब भाषा को "राष्ट्रवाद" के चश्मे से देखा जाता है और किसी एक भाषा को अन्य पर वरीयता देने की कोशिश होती है, तब यह लोकतंत्र की आत्मा—संघीय ढांचे—को चुनौती देती है।
एक राष्ट्र–कई भाषाएं: यही हमारी असली पहचान है
संविधान की आठवीं अनुसूची में आज 22 भाषाएं शामिल हैं, जबकि पूरे देश में 1900 से अधिक मातृभाषाएं बोली जाती हैं। केंद्र सरकार द्वारा हिंदी या किसी एक भाषा को राष्ट्र की "मुख्य भाषा" के रूप में आगे बढ़ाने की कोशिशें, चाहे वह प्रतियोगी परीक्षाओं में हो या आधिकारिक कामकाज में, अनेक राज्यों में संदेह और असहमति को जन्म देती हैं। तमिलनाडु, केरल, बंगाल, पूर्वोत्तर और अब महाराष्ट्र भी इस बहस में एक मुखर स्वर के रूप में सामने आया है।
महाराष्ट्र और मराठी भाषा की अस्मिता का प्रश्न
महाराष्ट्र में मराठी को लेकर भावनाएं बेहद गहरी और ऐतिहासिक रही हैं। चाहे वह सरकारी कार्यालयों में मराठी को प्रमुखता देने की बात हो या प्राइवेट कंपनियों और मल्टीनेशनल्स द्वारा हिंदी व अंग्रेज़ी को थोपने की प्रवृत्ति, राज्य में लगातार असंतोष पनप रहा है। बीते वर्षों में मराठी भाषा में बोर्ड, विज्ञापन, और नौकरी में अनिवार्यता को लेकर हुए आंदोलन केवल भाषाई नहीं, बल्कि संस्कृति और स्वाभिमान के प्रतीक बन चुके हैं।
शिवसेना से लेकर मनसे तक और अब सरकार द्वारा भी यह स्पष्ट किया गया है कि महाराष्ट्र में मराठी को 'दूसरी भाषा' के रूप में देखना अस्वीकार्य है। यह न केवल एक राज्य की आत्मा को आहत करता है, बल्कि संघीय सिद्धांतों के विरुद्ध भी है।
संघवाद की भावना: सिर्फ प्रशासनिक नहीं, सांस्कृतिक भी है
संघवाद केवल सत्ता के बंटवारे की व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह हर राज्य की सांस्कृतिक अस्मिता, भाषा और परंपरा के सम्मान की गारंटी है। जब केंद्र, राज्यों की भाषायी अस्मिता की उपेक्षा करता है, तो यह न केवल संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन होता है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को भी कमजोर करता है।
यह केवल हिंदी बनाम अन्य भाषाओं की लड़ाई नहीं है
यह बहस केवल हिंदी बनाम तमिल, मराठी या बंगाली की नहीं है, बल्कि यह उस दर्शन की बहस है जिसमें "एक भाषा–एक राष्ट्र" की संकल्पना को थोपने की कोशिश होती है। यह भारतीयता की उस मूल भावना का अपमान है, जिसमें ‘विविधता में एकता’ सबसे बड़ा मूल्य रहा है।
राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक समाधान चाहिए
भाषा को लेकर राजनीतिक बयानबाजी से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। हमें एक ऐसे भारत की कल्पना करनी होगी, जहां हिंदी, तमिल, मराठी, बंगाली, कन्नड़ सभी भाषाएं समान गरिमा और अवसर के साथ फलें-फूलें। नई शिक्षा नीति हो या डिजिटल प्रशासन, भाषायी समावेशिता अब केवल विकल्प नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक बाध्यता है।